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Posted: 09 Nov 2010 02:30 AM PST इस वर्ष में मुझे दो बार परम पूज्य दलाई लामा के साथ कार्यक्रम में भाग लेने का सौभाग्य और विशेष अवसर मिला।
पहला अवसर अप्रैल में हरिद्वार में कुंभ मेले के दौरान मिला। उन दो अवसरों के बारे में मैं पहले ही लिख चुका हूं जहां हम दोनों साथ-साथ थे। पहला, हिन्दू कोष के लोकार्पण और दूसरा गंगा को साफ करने के लिए उत्तराखण्ड सरकार द्वारा शुरू किए गए स्पर्श गंगा अभियान की शुरूआत पर। गत् सप्ताह दिल्ली के निकट सूरजकुण्ड में तिब्बत स्पोर्ट ग्रुप्स, जिसने दुनियाभर में अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किए हैं, ने छठा अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया था।
इन तीन दिवसीय (5-7 नवम्बर) सम्मेलन में दलाई लामा ने भाग लिया। मुझे सम्मेलन का उद्धाटन करने के लिए कहा गया था, जो मैंने किया। सम्मेलन में दुनिया के 56 देशों से 200 से अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया।
यह ऐसा छठा सम्मेलन था। पिछला सम्मेलन ब्रसेल्स में सम्पन्न हुआ। लेकिन यह पहली बार था कि चीन से भी प्रतिनिधियों ने भाग लिया और ये तिब्बत के मुद्दे पर मजबूती से समर्थन करते हैं।
तिब्बतियों के इस अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में अपने भाषण के दौरान मैंने चीनी राष्ट्रीपति श्री हु जिंताओ को नवम्बर 2006 में नई दिल्ली यात्रा के दौरान हुई अपनी भेंट का स्मरण किया। इस भेंट में मैंने चीनी नेता से चीन में ऐसी परिस्थितियां बनाने का आग्रह किया था ताकि अक्तूबर 2008 में बीजिंग ओलम्पिक से पहले दलाई लामा तिब्बत की यात्रा कर सकें। मैंने कहा, दुर्भाग्यवश चीन ने इस अवसर को गंवा दिया।
अपने भाषण में मैंने उल्लेख किया था कि बीजिंग को गंभीरता और सचमुच में संवाद कायम करने के इरादे से दलाई लामा, बौध्द शिक्षाओं के इस जीवंत मूर्त रूप से बढ़कर अधिक समझदार और शांतिप्रिय मध्यस्थ भला और कौन हो सकता है।
भारत के दीर्घ इतिहास में, उसने ‘भारतीय साम्राज्य‘ स्थापित करने के लिए दूसरे देशों को जीतने के लिए कभी सेना नहीं भेजी। मुझे, एक प्रसिध्द उदारवादी चीनी विद्वान तथा अमेरिका में चीन के राजदूत (1891-1961) रहे हु सिंग के शब्दों का स्मरण हो आता है जो उन्होंने भारतीय सभ्यता के बारे में कहे थे: ”भारत ने अपनी सीमा से एक भी सैनिक न भेजकर बीस शताब्दियों से तिब्बत को न केवल जीता अपितु सांस्कृतिक रूप से उस पर प्रभावी भी है।”
भारत की सभ्यता ने अनेक प्रताड़ित समुदायों को शरण दी है। उनमें से पारसी भी हैं जिन्हें अपनी जन्मभूमि छोड़नी पड़ी। वे इसलिए वापस नहीं जा सके क्योंकि उनके लिए कोई जन्म भूमि नहीं बची थी। उनके धर्म से जुड़ी सभी चीजें नष्ट कर दी गईं और वे तभी परसिया में रह सकते थे जब वे अपना धर्म त्याग दें। अत:, उन्होंने भारत माता को सदैव के लिए अपना लिया।
लेकिन ऐसा तिब्बत के लोगों के साथ नहीं है। उनके पास उनकी जन्मभूमि है, जो उन्हें अत्यन्त प्रिय है। यह उनके पूर्वजों की भूमि है। यह उनकी भव्य बौध्द मठ की भूमि है। यह प्रचुर प्राकृतिक सम्पदा से परिपूर्ण भूमि है। यह उनकी पवित्र भूमि है।
और यद्यपि तिब्बत पर बहुत अत्याचार किए गए और तिब्बत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर को नष्ट किया गया - और यह सब चीन की दुर्नाम ‘सांस्कृतिक क्रांति‘ (1967-77) के नाम पर किया गया - के बावजूद तिब्बत, तिब्बत के लोंगों के लिए मातृभूमि और पवित्र भूमि बना हुआ है।
इसलिए मैं आशा करता हूं और प्रार्थना भी कि शीघ्र ही एक दिन ऐसा आएगा जब परम पूज्य दलाई लामा और अन्य तिब्बती लोग जो निर्वासन में रहने को बाध्य हैं, अपनी जन्मभूमि और पवित्र भूमि पर सम्मानजनक और प्रतिष्ठित ढंग से जा पाएंगे, और तत्पश्चात् तिब्बत के भविष्य की नियति रच पाएंगे।
बीसवीं शताब्दी में वैश्विक घटनाक्रम वाशिंगटन और मास्को के सम्बन्धों पर पूरी तरह से निर्भर रहे। पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध ने बर्लिन दीवार को ढहते, जर्मनी के एकीकरण और संयुक्त सोवियत समाजवादी गणतंत्र (यू.एस.एस.आर.) को विघटित होते देखा। उसी समय फ्रांसिस फुकुयामा ने अपनी प्रसिध्द पुस्तक ‘द एण्ड ऑफ हिस्ट्री‘ लिखी। यह वस्तुत: माक्र्सवाद की स्मृतिलेख था।
मुझे ऐसा लगता है और मैंने गत् सप्ताह तिब्बती सम्मेलन में यह कहा भी कि 21वीं शताब्दी में भारत और चीन के सम्बन्ध विश्व इतिहास की प्रमुख घटनाओं का मुख्य नियंता बनेंगे। मैंने कहा कि भारत और चीन के बीच शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के सिवाय कोई अन्य विकल्प नहीं है।
1962 में चीन द्वारा किए गए विश्वासघात (वास्तव में पण्डित नेहरू इस सदमे को बर्दास्त नहीं कर पाए) की भावना के बावजूद श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मोरारजी भाई के मंत्रिमण्डल के विदेश मंत्री और बाद में एनडीए सरकार के 6 वर्षों के दौरान प्रधानमंत्री के रूप में इसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए सुनियोजित प्रयास किए।
मैं उम्मीद करता हूं कि चीन यह अहसास करेगा कि अरूणाचल के मामले में उसके विस्तारवादी वक्तव्यों और भारत के प्रति पाकिस्तान के शत्रुतापूर्ण रवैये को समर्थन देना हमारे दोनों देशों के बीच सामान्य सम्बन्ध स्थापित होने में सबसे बड़ा रोड़ा है।
चीन और भारत अब पूरी दुनिया में इस शताब्दी में एशिया की दो महान उभरती शक्तियां मानी जाती हैं।
इन दोनों के बीच तुलना पर आधारित एक अत्यन्त ही प्रशंसनीय पुस्तक, भारत के सर्वाधिक बड़े समाचार और टेलीविज़न व्यवसाय वाले नेटवर्क 18 जो भारत में सी एन एन और सी एन बी सी की भारतीय भागीदार हैं, के संस्थापक, नियंत्रक, शेयरधारक और सम्पादक राजीव बहल ने लिखी है।
पुस्तक का शीर्षक है: ”सुपर पावर? द एमेजिंग रेस बिटवीन चाइनीस हेर एण्ड इण्डियाज टॉर्टस”
पुस्तक का फ्लैप लेखक के विश्लेषण को इन निम्नलिखित शब्दों में समाहित करता है:
यक्ष प्रश्न है कि सुपर पावर की दौड़ में कौन विजयी होगा-भारतीय कछुवा या चीनी खरगोश? चीन विकास के क्षेत्र में अपनी गति से अर्थशास्त्र के चकित करने वाले नए मुहावरे गढ़ रहा है; जबकि भारत धीमी गति से प्रगति करता भारत-इस प्रश्न का उत्तर दे सकता है। इस संबंध में बहल का तर्क है कि इसका निर्णय इस आधार पर नहीं होगा कि इस समय कौन अधिक निवेश कर रहा है या कौन तेज गति से उन्नति कर रहा है, बल्कि सुपर पावर बनने के पैमाने होंगे-किसमें अधिक उद्यमशीलता और दूरदर्शिता है और कौन प्रतिस्पर्धात्मक परिस्थितियों का सामना करते हुए विकासशील है।
यह अवश्य ही पढ़ने योग्य पुस्तक है!
लालकृष्ण आडवाणी नई दिल्ली 7 नवम्बर, 2010 |
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