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LK Advani's Blog

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क्या श्रीमती (इंदिरा) गांधी ने अधिकृत कश्मीर को मुक्त कराने की योजना बनाई थी?

Posted: 22 Nov 2010 02:02 AM PST

गत् शुक्रवार 19 नवम्बर को प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह के साथ-साथ बड़ी संख्या में सांसद और पूर्व सांसद, संसद के सेंट्रल हॉल में श्रीमती इंदिरा गांधी के चित्र पर श्रध्दांजलि देने इकट्ठे हुए थे।

 

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पिछले कुछ सप्ताहों से एक प्रश्न मेरे दिमाग में घूमता रहा है: 1971 में जब इंदिराजी ने पूर्वी पाकिस्तान के बंगालियों के लिए एक स्वतंत्र बंगलादेश बनाने हेतु शेख मुजीर्बुरहमान की सहायता करने का निर्णय लिया तो क्या साथ-साथ वे पश्चिमी पाकिस्तान में भी कोई ऑपरेशन करने का विचार कर रही थीं जो निम्नलिखित दो मुख्य उद्देश्यों को लेकर था :

 

      1) पश्चिमी पाकिस्तान को टुकड़ों में बांटना और

      2) पाक अधिकृत कश्मीर को मुक्त कराना?

 

जब मैंने यह कहा कि कुछ सप्ताहों से यह प्रश्न मेरे दिमाग में घुमड़ रहा था, तो मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि सितम्बर में, रूपा प्रकाशन ने मुझे एक पुस्तक भेजी : बंगलादेश लिबरेशन वार : मिथ्स एण्ड फैक्ट्स(Bangladesh Liberation War : Myths and Facts)। पुस्तक के लेखक कोई बी.जेड. खसरू हैं जिनके बारे में कवर-फ्लैप में वर्णित किया गया है : एक पुरस्कार विजेता पत्रकार (जो) न्यूयार्क में एक वित्तीय प्रकाशन द कैपिटल एक्सप्रेसके सम्पादक हैं।

 

अभी तक मैंने ऐसा कभी किसी से कुछ सुना नहीं था। लेकिन यह पुस्तक इसके पर्याप्त आंकड़े देती है कि क्या श्रीमती गांधी ने वास्तव में इन उद्देश्यों को हासिल करने की योजना बनाई या नहीं, लेकिन उस समय के वाशिंगटन का शीर्ष नेतृत्व राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और राष्ट्रपति के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर मानते थे कि श्रीमती गांधी इस दिशा में कार्रवाई करने का सोच रही हैं और भारत को इन उद्देश्यों को प्राप्ति में सोवियत उनकी सहायता करेंगे।

 

उन दिनों में अमेरिकी-भारत सम्बन्ध काफी कटु थे और निक्सन को श्रीमती गांधी सख्त नापसंद थीं, अय्यूब और याहया अमेरिका की पसंद बन चुके थे। व्हाइट हाऊस में जनरल याहया खान के साथ राष्ट्रपति निक्सन की भेंट के बाद किसिंजर ने गंभीरता से पाकिस्तान के साथ संभावनाएं टटोली कि क्या वो चीन के साथ अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए अमेरिकी-चीन के रिश्तों को सुधार सकते हैं।

 

वास्तव में, पूर्वी बंगाल के सम्बन्ध में भारत-पाक संकट के समय अमेरिका ने न केवल बंगाल की खाड़ी में सातवां परमाणु बेड़ा रवाना किया था और चाहता था कि मास्को भारत को पश्चिमी पाकिस्तान को तबाह करने से रोके, लेकिन यह भी प्रयास किया कि चीन भारत को पूर्वी पाकिस्तान में किसी भी सशस्त्र हस्तक्षेप के विरूध्द धमकी दे।

 

क्या अमेरिका ने जो वास्तव में सोचा, क्या अमेरिकी धमकी और कार्रवाई से सचमुच में वह हासिल हुआ।

 

बाल्कनाइजवेस्ट पाकिस्तान : व्हाई गांधी बैक्ड ऑफशीर्षक वाले अध्याय में खसरू लिखते हैं :

 

जैसे भारतीय सेना पूर्वी पाकिस्तान में कूच करने लगीं तो संयुक्त राष्ट्र में युध्द रोकने हेतु अंतरराष्ट्रीय प्रयासों में तेजी आने लगी, (श्रीमती) गांधी ने अपने को मुसीबतों और कठिनाइयों के बीच में पाया। एक ओर, यदि वह पश्चिम में पाकिस्तानी सेना को कुचलने के लिए अपना अभियान जिसका वायदा उन्होंने महीनों पूर्व अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों को किया था, तेज करतीं तो उन्हें वाशिंगटन और बीजिंग से सम्भावित युध्द का सामना करना पड़ता तथा मास्को की नाराजगी झेलनी पड़ती जो चाहता था कि ढाका पर कब्जे के बाद युध्द समाप्त कर दिया जाए। दूसरी तरफ, यदि वह पीछे हटतीं तो उनके सहयोगी उनके लिए परेशानी पैदा करते और भारत को अपने घोर शत्रु को स्थायी रूप से पंगु बनाने का अनोखा अवसर गंवाना पड़ता।

 

10 दिसम्बर को इंदिरा गांधी ने अपने मंत्रिमण्डल को बताया कि यदि भारत बंगलादेश मुक्ति के बाद संयुक्त राष्ट्र के युध्द विराम प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है तो यह अमेरिका के साथ आगे की जटिलताओं को टाल सकता है और लद्दाख में चीनी हस्तक्षेप की वर्तमान संभावित संभावना को भी समाप्त कर सकता है।

 

भारत के रक्षा मंत्री जगजीवन राम और अन्य अनेक सैन्य नेतृत्व ने तब तक युध्द विराम का प्रस्ताव स्वीकार करने से मना किया जब तक भारत कश्मीर के निश्चित अनिर्दिष्ट क्षेत्रों को ले नहीं लेता और पाकिस्तान के युध्द तंत्रको नष्ट नहीं कर देता।

 

इंदिरा गांधी ने इन विरोधियों की सलाह को यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि फिलहाल भारत संयुक्त राष्ट्र के युध्द विराम प्रस्ताव को स्पष्ट रुप से रद्द नहीं करेगा।ढाका में अवामी लीग की सत्ता स्थापित हो जाने के बाद भारत यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेगा। 

myths-and-facts 

लेखक की खोजों पर संदेह करने का कोई कारण मुझे नहीं दिखता। परन्तु इस पुस्तक को पढ़ने के पश्चात् मेरी इच्छा है कि कोई निष्पक्ष भारतीय इतिहासकार मुख्य रुप से अमेरिकी स्त्रोंतों पर आधारित वर्णन को जैसा खसरु ने किया है, की तुलना में भारतीय सामग्री और भारत सरकार के दस्तावेजों के आधार पर शोध कर देश के सामने, हमारे पक्ष से घटनाओं के वर्णन को रखें।

 

कुल मिलाकर, यह पुस्तक उन सभी के लिए रोचक और पठनीय है जो हमारे इस उप-महाद्वीप के ताजा इतिहास में रुचि रखते हैं।

 

लालकृष्ण आडवाणी

नई दिल्ली

21 नवम्बर, 2010

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