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गंवाए गए दो अवसर, छ: विनाशकारी नतीजे Posted: 28 Jun 2011 12:53 AM PDT शहीद उसे कहा जाता है जो शत्रु देश के विरूध्द लड़ते हुए युध्द क्षेत्र में अपने जीवन का बलिदान देता है। डा0 मुकर्जी अपने स्वयं के देश में एक सरकार के विरूध्द लड़ते हुए शहीद हुए। उनकी लड़ाई जम्मू एवं कश्मीर राज्य के भारतीय संघ में पूर्ण विलय के लिये थी। वह एक ऐसे दूरद्रष्टा थे, जिन्होंने जम्मू कश्मीर, जोकि सामरिक महत्व का राज्य है, को शेष भारत के साथ एक पृथक और कमजोर संवैधानिक सम्बन्धों से जोड़ने के परिणामों को पहले से भांप लिया था।
जहां तक शेख अब्दुल्ला की वास्तविक समस्या उनकी महत्वाकांक्षा थी कि वे स्वतंत्र कश्मीर के निर्विवाद नेता बनना चाहते थे। जहां तक नेहरूजी का सम्बन्ध है, यह मामला साहस, दृढ़ता और दूरदर्शिता की कमी का मामला था।
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370, जिसे पंडित नेहरू ने स्वयं एक अस्थायी उपबंध बताया था, अभी तक समाप्त नहीं किया गया है। इसके परिणामस्वरूप, कश्मीर में अलगाववादी ताकतें, जिन्हें पाकिस्तान में भारत विरोधी व्यवस्था द्वारा सहायता प्रदान की जाती है और भड़काया जाता है, अपने इस जहरीले प्रचार को फैलाने में उत्साहित महसूस कर रही है कि जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय अंतिम नहीं था और विशेष रूप से कश्मीर भारत का भाग नहीं है।
जम्मू एवं कश्मीर एकमात्र ऐसा राज्य था जिसके विलय संबंधी मामला प्रधानमंत्री नेहरू सीधे तौर पर देख रहे थे। वास्तव में, ताकत और छलकपट के माध्यम से कश्मीर पर कब्जा करने के लिये 1947 में भारत के विरूध्द पाकिस्तान द्वारा छेड़े गये पहले युध्द से नेहरू सरकार को एक ऐसा शानदार अवसर मिला था जिससे न केवल आक्रमणकारियों को पूरी तरह से बाहर निकाला जाता अपितु पाकिस्तान के साथ कश्मीर मुद्दे का हमेशा के लिये समाधान भी हो जाता।
भारत ने एक बार फिर 1971 के भारत-पाक युध्द में कश्मीर मुद्दे का हमेशा के लिऐ समाधान करने का अवसर खो दिया जब पाकिस्तान न केवल बुरी तरह हारा था अपितु भारत के पास 90,000 पाकिस्तानी युध्द कैदी थे।
अत: हमारे देशवासी यह जानते हैं कि कश्मीर समस्या नेहरू परिवार की ओर से राष्ट्र के लिये विशेष ‘उपहार‘ है। इस ‘उपहार‘ के नतीजे इस रूप में सामने आए हैं :-
पाकिस्तान ने पहले कश्मीर में और बाद में भारत के अन्य भागों में सीमापार से आतंकवाद फैलाया।
पाकिस्तान द्वारा कश्मीर में धार्मिक उग्रवाद फैलाना, जो बाद में भारत के अन्य भागों में फैल गया।
हमारे हजारों सुरक्षा जवानों और नागरिकों का मारा जाना।
सेना और अर्ध्द सैन्य बलों पर करोड़ों-करोड़ रुपयों का खर्च।
भारत-पाकिस्तान के बीच कटु सम्बन्ध होने से विदेशी ताकतों को लाभ उठाने का अवसर मिलना।
लगभग सारे कश्मीरी पंडितों का अपने गृह राज्य से बाहर निकाला जाना और अपनी मातृभूमि में शरणार्थी अथवा ‘आन्तरिक रूप से विस्थापित‘ लोग बनना।
डा0 मुकर्जी ने पहले से भांप लिया था कि जम्मू कश्मीर को एक पृथक और गलत संवैधानिक दर्जा देने के भयावह परिणाम होंगे। परन्तु उन्होंने न केवल जम्मू एवं कश्मीर के भारत के साथ पूर्ण विलय की बात सोची थी, अपितु एक बहादुर और शेरदिल वाला राष्ट्रभक्त होने के नाते उन्होंने इस विज़न को अपने निजी मिशन का रूप दिया था।
उन्होंने अपने मिशन को तीन क्षेत्रों-राजनीतिक, संसदीय और कश्मीर की धरती पर लागू करने का निश्चय किया।
पहला, अक्तूबर, 1951 में उन्होंने कांग्रेस के सच्चे राष्ट्रवादी विकल्प के रूप में भारतीय जनसंघ की स्थापना की। कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के लिये अपने संघर्ष के अलावा, जनसंघ का एजेंडा नये-नये हुए स्वतंत्र भारत के ऐसे ढंग से पुनर्निर्माण तक विस्तारित हुआ जिससे धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर बिना किसी भेदभाव के इसके सभी नागरिकों के लिये समृध्दि, न्याय, सुरक्षा और कल्याण सुनिश्चित हो।
दूसरा, वर्ष 1952 के प्रथम आम चुनावों में जनसंघ द्वारा पहली बार भाग लेने के बाद डा0 मुकर्जी लोकसभा में वस्तुत: विपक्ष के नेता के रूप में उभरे। यहां पर उन्होंने कांग्रेस सरकार की जम्मू एवं कश्मीर के प्रति नीति का जोरदार विरोध किया, जिसका अन्य बातों के साथ-साथ यह अर्थ निकला कि भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सहित कोई भी व्यक्ति कश्मीर के ‘प्रधानमंत्री‘ की अनुमति के बिना कश्मीर में दाखिल नहीं हो सकता था। कश्मीर का स्वयं का संविधान होगा, स्वयं का प्रधानमंत्री होगा और इसका अपना ध्वज होगा। इसके विरोध में डा0 मुकर्जी ने मेघनाद किया : ”एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान नहीं चलेंगे।”
तीसरे, डा0 मुकर्जी ने 1953 में यह घोषणा की कि वह बिना परमिट के कश्मीर जायेंगे। 11 मई को कश्मीर में सीमापार करते समय उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और श्रीनगर के निकट एक जीर्णशीर्ण घर में नज़रबन्दी के रूप में रखा गया। जब उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया तो उन्हें उचित चिकित्सा सहायता प्रदान नहीं की गई और 23 जून को वह रहस्यमयी परिस्थितियों में मृत पाए गए।
डा. मुकर्जी के बलिदान के तत्काल परिणाम हुए।
इस घटना के बाद से परमिट प्रणाली को रद्द कर दिया गया और राष्ट्रीय तिरंगा राज्य में फहराया जाने लगा।
जून, 1953 में डा0 मुकर्जी के बलिदान के बाद ही राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय, निर्वाचन आयोग और सी.ए.जी. का प्राधिकार जम्मू एवं काश्मीर राज्य पर विस्तारित किया गया।
हमारी शिक्षा प्रणाली और सरकार-नियंत्रित मास-मीडिया नेहरू परिवार के योगदान की महिमा तो गाता है, परन्तु अन्य राष्ट्रभक्तों, जैसेकि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, सरदार पटेल, गोपीनाथ बारदोलाई, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, हिरेन मुखर्जी, ए. के. गोपालन और निश्चय ही डा0 मुकर्जी द्वारा किये गये संघर्षों और बलिदानों को या तो जानबूझकर कम आंकती है या अनदेखा करती है।
टेलपीस (पश्च्य लेख)
दु:ख की बात है कि आज कांग्रेस एक ही परिवार का जागीर बन गई है। प्रधानमंत्री का पद या तो किसी मनोनीत व्यक्ति या नेहरू परिवार के किसी सदस्य के लिए आरक्षित है। कांग्रेस अध्यक्षा द्वारा मनोनीत एक कमजोर और असहाय प्रधानमंत्री के कारण भारत भारी कीमत चुका रहा है।
अब कांग्रेस के भीतर एक नई मांग की जा रही है कि नेहरू वंश के किसी व्यक्ति को भारत के प्रधानमंत्री का पद संभाल लेना चाहिए।
हमारा देश संप्रग सरकार के कुशासन को और अधिक बर्दाश्त नहीं कर सकता। भारत जैसे महान लोकतंत्र में प्रधानमंत्री पद एक परिवार की जागीरदारी नहीं बनने दी जा सकती।
लालकृष्ण आडवाणी नई दिल्ली 26 जून, 2011 |
Posted: 27 Jun 2011 10:55 PM PDT विशुध्द ऐतिहासिक रुप से जून का महीना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। भाजपा में हमारे लिए इसकी अनेक तिथियां कभी न भूलने वाली हैं।
सन् 1975 की 12 जून वह तिथि है जिस दिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने श्रीमती इंदिरा गांधी का लोकसभाई निवार्चन रद्द किया तथा भ्रष्ट चुनावी तरीकों के आधार पर अगले 6 वर्षों तक उन्हें चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराया था।
आपातकाल की घोषणा जिस पर राष्ट्रपति से हस्ताक्षर करवाए गए थे, का उद्देश्य उच्च न्यायालय के निर्णय से सामने आए नतीजों को निष्प्रभावी करने हेतु सरकार को शक्ति प्रदान करना था।
आपातकाल की घोषणा केबिनेट को 26 जून की सुबह 6 बजे दिखाई गई। दो घंटे बाद 8 बजे प्रधानमंत्री ने स्वयं रेडियो के माध्यम से जनता को सूचित किया कि देश में आपातकाल लगा दिया है।
गत् रात्रि को घोषणा पर हस्ताक्षर होने के बाद मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया गया, मीडिया पर कड़ी सेंसरशिप थोप दी गई और आतंरिक सुरक्षा कानून (मीसा) के तहत व्यापक पैमाने पर लोगों को गिरफ्तार करने तथा नजरबंद करने का अभियान छेड़ दिया गया। पूरे देशभर से हजारों प्रमुख नेता, सांसद, विधायक, पत्रकारों और अन्य अनेक लोग जो आपातकाल का विरोध कर रहे थे तथा मांग कर रहे थे कि उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद श्रीमती गांधी को त्यागपत्र दे देना चाहिए, को जेलों में डाल दिया गया।
इन दिनों देश भ्रष्टाचार, केन्द्र सरकार के अनेकों घोटालों और विदेशी बैंको में जमा काले धन के मुद्दे पर आंदोलित है। लेकिन हम भाजपा के कार्यकर्ता यह कभी नहीं भूल सकते कि हमारी राजनीतिक यात्रा सन् 1951 में डा0 श्यामा प्रसाद मुकर्जी के नेतृत्व में शुरु हुई और जनसंघ के द्वारा आरंभ किया गया पहला राष्ट्रीय आंदोलन जम्मू एवं कश्मीर राज्य के भारत के पूर्ण विलीनकरण के लिए था। डा0 मुकर्जी ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया और राज्य सरकार द्वारा बंदी बना लिए गए। 23 जून, 1953 को वह रहस्यमयी परिस्थितियों में मृत पाए गए; जम्मू एवं कश्मीर के एकीकरण के लिए शहीद हो गए।
सन् 1952 मे पहला आम चुनाव हुआ। भारतीय जनसंघ के पहले राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने वाले हम सभी डा0 मुकर्जी के इस आवाहन् कि: एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान नहीं चलेंगे- से अत्यंत उत्साहित हुए थे।
टेलपीस (पश्च्य लेख) पिछले सप्ताह 19 जून को मैंने एक समाचार देखा जो भोपाल से था जिसमें कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने पीटीआई को बताया ”मैं समझता हूं कि अब समय है कि राहुल प्रधानमंत्री बन सकते हैं।”
इस एक वक्तव्य से कांग्रेस नेता ने अपने आप को बंधन में बांध लिया है।
दि इक्नामिक्स टाइम्स (20 जून) ने पीटीआई के इस समाचार का उपयोग करते हुए समाचार का शीर्षक दिया है: राहुल 41 के हुए, सरकार का काम संभालना चाहिए : दिग्विजय सिंह (Rahul turn 41 should take charge of govt : Digvijay singh) समाचार निम्न है
नई दिल्ली: सरकार की छवि पर गहराते धब्बों को भर पाने में सरकार के नेतृत्व की असफलता पर कांग्रेस मे असहजता रविवार को उस समय और गहरा गई जब पार्टी महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा कि अब समय आ गया है कि राहुल गांधी को कामकाज संभाल लेना चाहिए। हालांकि सिंह ने कहा प्रधानमंत्री का भार संभालने के बारे में निर्णय करने का फैसला नेहरु-गांधी परिवार के उत्तराधिकारी पर छोड़ दिया है।
”अब यह राहुल गांधी पर है कि वे कैसे इसे लेते हैं। अब वह परिपक्व व्यक्ति हैं जिसके पास अच्छी- खासी राजनीतिक समझ है और प्रधानमंत्री बन सकते हैं- सिंह ने कहा। कांग्रेस महासचिव ने यह भी कहा कि राजीव गांधी ने सक्रिय राजनीति में काफी वर्ष व्यतीत किए हैं।” राहुल गांधी अब 41 के हो गए हैं और वे पिछले सात- आठ वर्षों से पार्टी के लिए काम कर रहें है” सिंह ने कहा। इस वक्तव्य का स्पष्ट आयाम यह है कि सर्वोच्च पद प्रधानमंत्री पर बैठे व्यक्ति को अवश्य ही अपना स्थान नेहरु परिवार के उत्तराधिकारी के लिए खाली कर देना चाहिए।
मुझे आश्चर्य है कि क्या किसी अन्य लोकतंत्र में सत्तारुढ़ दल का महासचिव ऐसा सार्वजनिक वक्तव्य देने की हिम्मत कर सकेगा। कम्युनिस्ट देश में, कम्युनिस्ट पार्टी के प्रथम सचिव (first secretary) को शायद ऐसा कहने का अधिकार हो, लेकिन वह भी ऐसा करने से पहले सोचेगा। वस्तुत: सभी जानते हैं कि डा0 मनमोहन सिंह की तरह श्री चन्द्रशेखर, श्री देवेगौड़ा, श्री इन्द्र कुमार गुजराल भी कांग्रेस के मनोनीत प्रधानमंत्री थे। लेकिन जब वे प्रधानमंत्री थे तब कांग्रेस के किसी महासचिव की ऐसा वक्तव्य देने की हिम्मत हो सकती थी? और यदि कोई ऐसा वक्तव्य दिया गया होता, तो क्या वे पद पर बने रहते?
अभी हाल में मैंने एनडीटीवी को दिए गए दिग्विजय सिंह के इंटरव्यू की स्क्रिप्ट देखी जिसमें उन्होंने अपने पूर्व के गैरजिम्मेदाराना वक्तव्य को सुधारते हुए मनमोहन सिंह की प्रशंसा की है (वे अपेक्षाकृत अच्छे प्रधानमंत्री हैं) और तभी यह भी जोड़ दिया ”मैं अपने जीवनकाल में राहुल को प्रधानमंत्री के रुप में देखकर प्रसन्न होऊंगा।”
लालकृष्ण आडवाणी नई दिल्ली 25 जून 2011 |
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